खत्म हुआ मतदान का दौर

लगभग एक माह तक पूरी तरह से थका देने वाला लोक सभा चुनाव का कार्यक्रम अब समाप्त हो गया। चुनाव आयोग के अनुसार चुनाव शांतिपूर्ण हुए जबकि नक्सल प्रभावित इलाकों में कुछेक हिंसा की वारदातें हुई जिसमे कई लोग मारे गए। भारत के चुनावी इतिहास के पन्ने को अगर पलट कर देखा जाए तो एक बात गौर करने वाली है की भारत में दिनोदिन चुनावों में हो रही हिंसा में कमी आई है जोकि एक लोकतान्त्रिक देश के लिए काफी बेहतर है। एक बात और ध्यान देने वाली है की इस चुनाव प्रक्रिया में उन वर्गों की भागीदारी में भी वृद्धि देखी गई है जो पहले के चुनाव में हाशिए पर रहा करते थे। इस वृद्धि के लिए चुनाव आयोग की सक्रियता आख़िर सफल हुई और इसका श्रेय भी काफी हद तक चुनाव आयो़ग को जाता है। इस चुनाव में उन राजनैतिक संगठनों और ताकतों का भी इसमें सकारात्मक योगदान है, जिन्होंने पिछडों, दलितों व स्त्रियों को लोकतंत्र में ज्यादा महत्वपूर्ण व सक्रिय बनाया है। इससे साफ़ जाहिर होता है की हमारा देश लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बेहतर और प्रभावशाली बनाने की प्रक्रिया में आगे बढ़ रही है। लेकिन इसके बावजूद भी इस चुनाव में कुछ कमिया और सवाल देखे जा सकते है जिसका समाधान दूंढ़ लेना लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बेहतर और प्रभावशाली बनाने की प्रक्रिया में मददगार साबित होगा। वह समस्या है कि हमारे चुनाव छेत्र बहुत बड़े होते है और चुनाव में प्रचार के लिए समय बहुत होता है। ऐसी स्थिति में उम्मीदवार वोटरों के बीच ज्यादा संपर्क नही बना पाते है। जिसकी वजह से उम्मीदवार जनसंपर्क का दूसरा विकल्प पैसे में ढूंढता है। एक ऐसे व्यवस्था के बारे में सोचना होगा जिससे जनता और उम्मीदवार के बीच सीधा संपर्क हो सके। और जिससे धन और बल दोनों का प्रभाव भी कम हो सकता है। अधिकतर देखा गया है की लोक सभा के चुनाव में स्थानीय मुद्दे महत्वपूर्ण न होकर केंद्रीय मुद्दे ज्यादा हावी होते है। पूरे देश में विकास केंद्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। जबकि स्थानीय और केंद्रीय मुद्दों के बीच की दूरिया भी धुंधली होती जा रही है। चुनाव में सभी वर्गों की भागीदारी बढ़ रही है और इस भागीदारी को और सरल बनने से लोकतंत्र और मजबूत बनेगा। चुनावों में उम्मीदवार और मतदाता के बीच जितना सरल तरीके से सम्पर्क होगा धन और बल की आवश्यकता उतनी ही कम होगी। चुनाव आयोग के सखत रवैये के बावजूद, सीधा संपर्क नही हो पाने के कारन भी पैसे का चलन बढ़ा है। फिलहाल लोकतंत्र के इतने मजबूत होने से हम ऐसे कुछ जटिल समस्याओ के बारे में सोच विचार सके।

तीसरे मोर्चे की वास्तविकता : स्वप्न, हकीकत या छलावा

१५वीं लोकसभा चुनाव की तिथि निर्धारित होते ही तीसरे मोर्चे के गठन का भी ऐलान कर दिया गया। तीसरे मोर्चे के लिए चलाया जा रहा अभियान गति पकड़ रहा है। तीसरे मोर्चे का सपना कोई नया नही है। एक विचार के तौर पर यह स्थापना जनता को काफ़ी आकर्षित भी करती है की देश में एक ऐसा मंच बने जो उन सभी मुश्किलों से मुक्त हो जिसके लिए कांग्रेस पूरे देश में जानी जाती है। और साथ ही भाजपा की तरह संघ और साम्प्रदायिकता की कोई छाया भी न पड़े। कांग्रेस और भाजपा देश की राजनीति की दो ऎसी हकीक़त है जिसके आस-पास ही पिछले कुछ वर्षो से भारतीय राजनीति ध्रुवीकरण है। तीसरे मोर्चे की कल्पना इन दोनों से अलग एक सुनहरा व सुव्यवस्थित देश बनाने की है। लेकिन जाहिर सी बात है की इसके लिए जो भी महारथी आयेंगे वो भी किसी स्वर्ग से नही बल्कि इन दोनों ध्रुवों के आस-पास घूमने वाले महारथी ही होंगे जो दिल्ली की सत्ता में अपनी हिस्सेदारी या अपने जुगाड़ तलाश रहे होंगे। इसमें बहुत से ऐसे भी होंगे समय के नजाकत को देखते हुए पाला भी पलट सकते है।

जन्मदिन एक दिवस अनेक

उत्तर प्रदेश में आज का दिन काफ़ी महत्वपूर्ण है क्योकि आज बहुजन समाज पार्टी की अध्यछ व उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ५३वाजन्मदिन जो है जिसे कई मायनो में याद रखा जाएगा। पिछले कई महीनो से बहन मायावती के जन्मदिन की तैयारिया चल रही थी। जबकि पार्टी के अन्य नेता का कहना है की इस बार मुंबई में हुए आतंकी हमलो की वज़ह से बहन जी अपना जन्मदिन बड़े ही सादगी से मनाएगी। मायावती प्रत्येक वर्ष अपना जन्मदिन बड़े धूम धाम से मनाती है लेकिन इस बार माहौल जरा हट के था। प्रत्येक वर्ष बहन जी के जन्मदिन अवसर पर उनके पार्टी के कार्यकर्ता व तमाम प्रतिष्ठित लोग शामिल होते है। लेकिन इस बार उनका जन्मदिन मनाने वालों में उनके समर्थकों के साथ उनके विरोधी पार्टी वाले भी शामिल थे। हा, ये बात अलग है की उनका जन्मदिन मनाने का अंदाज़ अलग था। विरोधियो को तो एक मौका चाहिए चाहे वो जन्मदिन का अवसर हो या कोई और मौका। किसी ने ये मौका गवाया नही। और इसी का फायदा उठा कर विपछी दलों ने प्रदेश में जगह जगह जम कर बवाल काटा। विपछी दलों का आरोप है की बहन जी अधिकारियो, ठेकेदारों, दुकानदारों व आम जनता से पार्टी के नाम पर जबरन चंदा वसूलती है और उस भारी भरकम चंदे से अपना जन्मदिन समारोह खूब धूम धाम से मनाती है। इस चंदे की वज़ह से पैदा हुए फजीहत ने भले ही बहन जी की कुछ दिनों की रातें हराम कर दी हो लेकिन इस चंदे की वज़ह से एक अभियंता के परिवार के दिन का सुकून और रातों की चैन गायब हो गई है। गौरतलब है की दिसम्बर के महीने में पार्टी के एक विधायक शेखर तिवारी ने पी डब्ल्यू दी के अभियंता एम् के गुप्ता की हत्या कर दी थी। मीडिया की कारवाई से ये बात सामने उभर कर आई की पार्टी के विधायक शेखर तिवारी ने पी डब्ल्यू दी के अभियंता एम् के गुप्ता की हत्या इसलिए कर दी गई क्यों की अभियंता ने बहन जी के जन्मदिन के लिए वसूले जा रहे चंदे को देने में असमर्थता दिखाई थी। और इस घटना का सीधे तौर पर बहन जी के जन्मदिन के लिए जुटाए जा रहे चंदे से जोड़ा गया। बहन जी के जन्मदिन के इस मौके को राजनीतिक दलों ने खूब भुनाया । सभी दलों ने तरह से तरह से सरकार के प्रति अपना गुस्सा और विरोध जताया। किसी ने थू- थू दिवस तो किसी ने धिक्कार दिवस तो किसी ने शोषित व खुनी दिवस के रूप में मनाया। विपछि दलों ने जन्मदिन जैसे भी मनाया हो इससे बहन जी को कोई फर्क नही पड़ता। इसके विपरीत बहन जी ने अपना जन्मदिन 'विपछि दल धिक्कार दिवस' के रूप में मना कर विपछि दलों को करारा जवाब दिया है।

आखिर खत्म हुआ चुनावी उत्सव

शुक्र है आखिर में चुनावी उत्सव खत्म हो ही गया। लगभग एक महीने से अधिक तक चले इस चुनावी उत्सव में छः राज्यों के विधान सभा चुनाव हुए जिनमें दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और जम्मू कश्मीर राज्य शामिल थे। इस छः राज्यों के चुनाव के दौरान जनता देश की अनेको राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घटनाओं से रूबरू हुई। इनमे आर्थिक मंदी, नौकरिओं में कटौती, बढती बेरोजगारी, बढती महंगाई और आतंकवाद जैसे घटना शामिल रहे। जनता ने यह भी देखा की किस प्रकार पार्टी में टिकट न मिलने पर नेता पार्टी से बागी हो जाते है। आशा लगाये पार्टी के उम्मीदवारों को चुनावी टिकट के बजाए खाली हाथ लौटना पड़ा तब उम्मीदवारों और समर्थकों ने पार्टी के आलाकमान के खिलाफ जम कर नारेबाजी की व पार्टी के विरुद्ध बगावत कर दी। इस विरोध में अपनों को टिकट न दिलवा पाने पर कई बड़े नेताओं ने भी बागिओं के साथ मिलकर पार्टी पर टिकट बिक्री का आरोप लगाया। इस प्रकार की राजनीति से जनता के बीच में क्या संदेश जाएगा। दूसरी तरफ़ राजनीतिक दलों ने इन आरोपों को निराधार बताते हुए सिरे से खारिज कर दिया है। इसी सब कुछ सामान्य चल रहा था की अचानक दिल्ली में २९ नवम्बर को होने वाले चुनाव के ठीक दो दिन पहले मुंबई में आतंकी हमला हुआ जिसे अब तक के आतंकी इत्तिहास में सबसे बड़ा आतंकी हमला बताया जा रहा है। ६० घंटे तक चला इस आतंकी हमले ने देश की सुरछा व्यवस्था की कलाई खोल कर रख दी है। इस घटना में कई निर्दोषों व मासूमों की जान गई तो आतंकवादियों से मुठभेड़ में देश के कई सुरछाकर्मी शहीद हो गए। इस घटना ने केवल देश में ही नही पुरे विश्व में हलचल मचा दी। कुछ का तो कहना था की इसे भारत का ९/११ कहना ग़लत नही होगा जिसमे आतंकवादियों ने मुंबई की १०५ साल पुराने होटल ताज व होटल ओबेराय को सर्वाधिक नुकसान पहुचाया है। इसके बावजूद हमारे नेताओं ने मृतकों व शहीदों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने व आतंक के ख़िलाफ़ कड़े कदम उठाने के बजाए आपस में एक दूसरे आरोप लगाये जा रहे है। विपछ व सहयोगी दलों के आलोचनाओं व जनता के आक्रोश से बचने के लिए सरकार ने तुंरत केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल, महाराष्ट्र के मुह्यमंत्री विलासराव देशमुख और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटिल का इस्तीफा स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद सरकार इस घटना से सीख लेने के बजाये राजनीति करती नजर आई। महाराष्ट्र में रिक्त पड़े मुह्यमंत्री व गृहमंत्री के पद को लेकर जो हो हंगामा हुआ वो किसी से छुपा नही है। यदि इन नेताओं में जरा भी नैतिकता बची होती तो इस वक्त कुर्सी के लिए आपस में लड़ने के बजाये समन्वय बनाकर आतंक से लड़ने का उपाय सोचते। लेकिन जनता की जनप्रतिनिधि कहलाने वाले ये नेता अब इस भ्रम में न रहे। जनता सरकार के इसप्रकार के रवैये से परेशान और आक्रोशित है। जनता अब वह झूठे वादों में नही आने वाली है। इसका परिणाम ५ राज्यों के चुनावों में देखा जा सकता है। जिसमे कांग्रेस ने ३ राज्यों में व बीजेपी ने २ राज्यों विजय हासिल की। जनता का यह संदेश एक तरह से आगामी लोकसभा चुनाव का संकेत है। यानी सभी राजनीतिक पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए अभी से सोच विचार करना शुरू कर दे।

लो एक और बम धमाका

हर बार की तरह २६ नवम्बर 2008, बुधवार की रात को साढ़े नौ बजे एक बार फिर मुंबई में बम ब्लास्ट का कहर टूटा । भारत में बम ब्लास्ट कोई नई बात नही है और देशवासी भी इसके अब आदि हो गए है। बस नया है तो आतंक का नया तरीका। इससे पहले भी आतंकियों ने आतंक फैलाये है लेकिन इस बार इरादा कुछ और है। पहले की तरह बाज़ार में ब्लास्ट न करके इस बार वो सेना से दो दो हाथ करने के मूड में आए है। कहा जा रहा है की भारत में हुए अब तक जितने भी धमाके हुए है उनमे ये सबसे ज्यादा डरावना व भयानक है। अगर पूरे विश्व के आतकवादी गतिविधियों व बम धमाको पर नजर डाले तो यह अमेरिका के ९/११ घटना की याद दिलाता है। वाकई इन आतंकवादियों ने तो हद ही कर दी है। २६ नवम्बर की रात मुंबई में जो घटना घटी वो दिल दहला देने वाला मंजर था । समुद्री रास्ते से भारी तादाद में आए ये आतंकवादी अत्याधुनिक ऐके-४७ व ग्रेनेड से लैस थे इन आतंवादियों ने मुंबई के हाई प्रोफाइल एरिया में घुस कर दस जगहों पर विस्फोट कर मासूम व बेगुनाह लोगो पर ताबड़तोड़ गोलिया चलाई और सैकड़ो लोगो की जान लेली। आतंकवादियों ने मुंबई के सबसे पुराने होटल ताज होटल व ओबेरॉय होटल में घुस कर विदेशी सैलानियों व पर्यटकों पर जो जुल्म किए वो इंसानियत को शर्मसार कर देती है। मीडिया के जरिये इस घटना का ताजा हाल पूरी दुनिया तक पहुच रहा था। ख़बर पाते ही मुंबई पोलिश सतर्क हो गई और जगह जगह नाके बंदी और जांच शुरू हो गई। अब तक देश के सबसे बड़े इस आतंकी घटना को अगर भारत का ९/११ कहा जाए तो कोई ग़लत नही होगा। इस आतंकी घटना को खत्म करने एन एस जी के जवान व अर्धसैनिक बलों की मदद ली गई। आतंकवादियों से मुठभेड़ में ऐटीएस के चार आला अफसर समेत १४ पुलिशकर्मी शहीद हो गए जिसमे ऐटीएस प्रमुख हेमंत करकरे भी शामिल थे। भारत की जनता उन राजनेताओ से यह पूछना चाहती है की आतंकवाद की यह लड़ाई हम कब तक लड़ते रहेंगे। अगर हम इस घटना पर ध्यान दे भारत को कई समस्याओ से दो चार होना पड़ सकता है जैसे हमला होते ही इंग्लैंड ने भारत दौरा बीच में ही रद्द कर दिया। ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत आने पर आपत्ति जताई है वही भारत में होने वाले चैंपियंस ट्राफी भी निरस्त कर दी है। पर्यटन की दृष्टि से यह घटना भारत आने वाले उन विदेशी पर्यटको को भी प्रभावित करेगा जो हर साल भारी संख्या यहाँ में आते है। हम सभी राजनीतिक दलों से उम्मीद करते है की देश की इस दुखद परिस्थिति में लोगो का साहस बढाये न की इस पर राजनीति करे और जल्द से जल्द विकराल रूप लेती इस समस्या का हल निकाले।



राजनीति बेफिजूल की

सिंगुर की नैनो प्रोजेक्ट की तरह रायबरेली की रेल कोच फैक्ट्री भी राजनीति की भेंट चढ़ गई। इसमे भी किसानों को ही मुद्दा बनाया गया है। किसानों को लेकर चल रही राजनीति से यह बात बिल्कुल भी स्पष्ट हो जाती है की चर्चा में बने रहने व वोट बैंक की राजनीति के इस खेल में राजनेता एक तरफ़ वाहवाही लूट रहे है तो दूसरी तरफ़ इस राजनितिक प्रतिद्वंदिता का नुकसान उस गरीब जनता को भुगतना पड़ता है जिसे एक वक्त की रोटी के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। यदि रायबरेली व सिंगुर इन दोनों मामलों की बात की जाए तो इनमे एक महत्वपूर्ण अन्तर यह है की जहां सिंगुर में नैनो प्लांट लगाने के लिए पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्ठाचार्य ने हरसंभव प्रयास किया वही रायबरेली की रेल कोच फैक्ट्री को स्थापित करने में प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ही अड़ंगा लगा रही है। यदि रायबरेली में यह रेल कोच फैक्ट्री स्थापित होती तो लगभग ६०० लोगों को प्रत्यछ् व हजारों लोगों को अप्रत्यछ्य रूप से रोजगार के अवसर प्राप्त होते। इसके साथ ही लगभग २०० लघु उद्योगों के भी स्थापित होने सम्भावना थी लेकिन रोजगार के इस अवसर पर राजनीति की आरी चल गई।

सिंगुर पर राजनीति

टाटा समूह के नैनो परियोजना को पश्चिम बंगाल से बाहर ले जाने की घोषणा के बाद सिंगुर में 12 घंटे का बंद।
शुक्रवार रात दुर्गापुर एक्सप्रेस को रोक दिया गया था लेकिन शनिवार दोपहर से रेलगाड़ी फिर चलने लगी है। ये टाटा के कारखाने और कमाराकुंडा रेल स्टेशन के बीच चलती है। हावड़ा-बर्दवान रेल लाइन पर भी रेलगाड़ियों की आवाजाही बाधित की गई है। दुर्गापुर एक्सप्रेसवे पर सभी दुकानें बंद हैं। किसान व स्थानीय लोग भी प्रदर्शनों में शामिल हैं क्योंकि वे इस कारखाने के काम करने से नौकरियों और व्यवसाय शुरु होने की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन सिंगुर पर हो रही राजनीति में वैसे गरीब जनता मारे जाएंगे जिसे एक वक्त की रोटी के लिए सोचना पड़ता है। उधर पश्चिम बंगाल की सरकार का कहना है कि टाटा के राज्य से हटने से पहले 11 हज़ार लोगों ने टाटा के कारखाने के लिए ज़मीन दी थी जबकि केवल दो हज़ार किसान विपक्षी दलों के साथ जुड़कर टाटा का विरोध कर रहे थे। हमें फैक्ट्री लगाने में बहुत आक्रामक विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा की विपक्ष मूल बातो को समझेगी और हमें पर्याप्त भूमि मिल सकेगी ताकि मुख्य प्लांट और सहायक इकाइयाँ एक साथ लगाई जा सकें, लेकिन ऐसा नहीं हो सका लेकिन हम हमेशा पुलिस की सुरक्षा में काम नहीं करना चाहते थे।

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